कोर्ट में विभिन्न मुद्दों को लेकर कई समाजसेवक और कार्यकर्ता जनहित याचिकाएं लगाते रहतें है। जनहित याचिकाएं कहने को जनता के हित मे लगाई जाती है लेकिन इनका असली एजेंडा कुछ और ही होता है। एक ऐसी लॉबी देश मे सक्रिय है जिसका काम जनहित याचिकाओं के नाम पर अपना एजेंडा चलाना है। जैसे अभी कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने को लेकर जनहित याचिकाओं की बाढ़ आयी हुई है। हालांकि किस याचिका को सुनना है और किसे अस्वीकार करना है ये कोर्ट के ‘विवेक’ पर निर्भर करता है लेकिन तब भी कई बार ऐसा लगता है कि कोर्ट इन मामलों में निष्पक्ष फैसला नही कर पाती।
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हालिया मामला त्रिपुरा का है जहां मंदिरों में पशुबलि रोकने के लिए कोर्ट में एक जनहित याचिका लगाई गई थी। इस पर फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने टिप्पणी की- “मंदिर में एक जानवर का बलिदान धर्म का अनिवार्य हिस्सा नही होना चाहिए, ये भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन है।” इस टिप्पणी के साथ ही त्रिपुरा हाई कोर्ट ने राज्य के मंदिरों में पशु-पक्षियों के बलिदान पर प्रतिबंध लगाते हुए कह दिया कि जानवरो को भी जीने का मौलिक अधिकार है।
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ऊपर से देखने पर कोर्ट का ये फैसला समझदारी भरा, परोपकारी और पशु क्रूरता के खिलाफ बेहतरीन कदम दिखाई देता है।लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं। क्योंकि पशुओं के मौलिक अधिकार, उन्हें जीने का अधिकार कोर्ट को तभी याद आता है जब पशुबलि हिन्दू मंदिरों में दी जा रही होती है। ऐसी ही जनहित याचिका जब ईद पर पशुबलि के खिलाफ लगाई जाती है तब कोर्ट को ये याचिका गैर-जरूरी और समय की बर्बादी प्रतीत होती है।
तब कोर्ट को पशुबलि पर रोक किसी के धर्म-मजहब में दखल की तरह दिखाई देती है। ईद पर हलाल होने वाले लाखों बकरों, गायों, बैलों और ऊँटो के मौलिक अधिकार पर कोर्ट अपनी आंखें बंद किये रखती है। कोर्ट को न जाने क्यों ये समझ नही आता कि जानवर की जिंदगी मंदिर में जितनी जरूरी है उतनी ही ईद के दिन भी जरूरी होती है। अगर निर्दोष का खून बहाना धर्म का हिस्सा नही हो सकता तो इसे मजहब का अनिवार्य हिस्सा क्यों माना जा रहा है? बात सीधी है। अगर मंदिर में पशुबलि पर रोक लगती है तो ईद पर भी रोक लगना ही चाहिये।
ये मांग किसी मजहब के खिलाफ नही बल्कि समानता के लिए और धार्मिक भेदभाव के खिलाफ है। कोर्ट को खुद सोचना चाहिए कि अपने ऐसे फैसलों से वो समाज मे वैमनस्यता तो नही फैला रहे है? हिन्दू-मुस्लिम के बीच तनाव बढ़ाने का ही काम कोर्ट द्वारा जाने-अनजाने में किया जा रहा है। पशु क्रूरता के खिलाफ कानून बने ये सबकी कामना है लेकिन कानून भी हिन्दू-मुस्लिम के लिए अलग हो ये काम माननीय कोर्ट को शोभा नही देता। उन्हें एक बार अपने गिरेबां में झांककर देखने के साथ ही अपने पक्षपातपूर्ण रवैये पर खुद का चेहरा आईने में एक बार देखना चाहिये। बाकी हकीकत आईना खुद बयान कर देगा।
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– सचिन पौराणिक
