सूरज की तरह चमक थी जिन आंखों में ,
रोशनी धुंधला सी गई है आज उनमें |
जिन कंधों ने भार उठाया परिवार का जीवनभर ,
वो थोड़े झुक से गए हैं आज थकान से |
जो हाथ बढ़ जाते थे सहारा देने को ,
लकड़ी का सहारा आ गया है आज उनमें |
जो पैर बने थे हिस्सा जीवन की आपाधापी का,
ज़रा ठहराव सा आ गया है आज उनमें |
जिस माथे पे लहराते थे घने से केश ,
थोड़ी कमी और सफेदी सी छा गई है आज उनमें |
जिस चेहरे को देख आईना भी शरमा जाता था ,
थोड़ा झुर्रियों के बीच दब सा गया है आज वो |
बहुत कुछ कहती है चमड़ी की सलवटें ,
दबे हैं न जाने कितने किस्से- कहानियां उनमें |
दे रहा है हमें वो धूप आज भी ,
जिसमें सिके थे कभी अनुभव उसके |
ना जाने कैसा तप है उन कंपकंपाते हाथों में ?
जो बदल देता है मुराद को भी असलियत में |
उगते सूरज को तो सभी ने किया है सलाम ,
अब ढलते सूरज को भी है दंडवत प्रणाम |
– बकुल गुप्ता , इंदौर
मैय्यत के बहाने…..
कहानी : प्यार के आगे दवाइयों का क्या मोल
शरद दर्शा रहा संघर्ष और तैयारी

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