हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में ‘आधुनिक मीरा’ के नाम से पहचानी जाने वाली महादेवी वर्मा को 27 अप्रैल, 1982 को भारतीय साहित्य में उनके अहम योगदान के लिए ज्ञानपीठ अवॉर्ड मिला था। इसी को स्मरण करते हुए गूगल ने उनका डूडल बनाया है, जिसमें वे हाथों में डायरी और कलम लिए अपने विचारों में खोई दिख रहीं हैं। इस डूडल को कलाकार सोनाली ज़ोहरा ने बनाया है।
आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च 1907 को उत्तरप्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ। उनके परिवार में 200 वर्ष बाद पुत्री का जन्म हुआ था, अतः उनके पिता ने घर में देवी का प्रवेश मानकर उनका नाम महादेवी रखा। उनके पिता गोविंदप्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे और उनकी माता हेमरानी देवी की साहित्य और संगीत में रुचि थी। इन दोनों का प्रभाव महादेवी वर्मा के जीवन पर भी पड़ा| प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त और निराला को वे अपना भाई मानती थीं| वे जीवनभर दोनों को राखी बांधती रहीं।
जीवनभर वे लेखन, संपादन और अध्यापन के क्षेत्र में सक्रिय रहीं । वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा। कॉलेज में सुभद्रा कुमारी चौहान उनकी अभिन्न मित्र थीं| 1932 में जब उन्होंने संस्कृत में एमए किया, तब तक उनके दो कविता संग्रह ‘नीहार’ तथा ‘रश्मि’ प्रकाशित हो चुके थे। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चांद’ का कार्यभार संभाला। 1934 में नीरजा तथा 1936 में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। सन 1955 में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं. इलाचंद्र जोशी के सहयोग से ‘साहित्यकार’ का संपादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था।
वे गद्य लेखन, संगीत और चित्रकला में भी निपुण थीं| उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है| महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने जनसेवा का व्रत लिया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया|
उनकी प्रमुख रचनाएं
काव्य नीहार (1930) रश्मि (1932) नीरजा (1934) सांध्यगीत (1936) दीपशिखा (1942) यामा [9] सप्तपर्णा [10] गद्य अतीत के चलचित्र स्मृति की रेखाएँ पथ के साथी मेरा परिवार | विविध संकलन[11] स्मारिका स्मृति चित्र संभाषण संचयन दृष्टिबोध पुनर्मुद्रित संकलन यामा (1940) दीपगीत (1983) नीलाम्बरा (1983) आत्मिका (1983) | निबंध शृंखला की कड़ियाँ विवेचनात्मक गद्य साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध ललित निबंध क्षणदा |
उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं।
महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है। उसमें देश, समाज या युग का चित्रांकन नहीं है, बल्कि उसमें कवयित्री की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी अनुभूतियाँ प्रायः अज्ञात प्रिय के प्रति मौन समर्पण के रूप में हैं। उनका काव्य उनके जीवन काल में आने वाले विविध पड़ावों के समान है। उनमें प्रेम एक प्रमुख तत्त्व है जिस पर अलौकिकता का आवरण पड़ा हुआ है। इनमें प्रायः सहज मानवीय भावनाओं और आकर्षण के स्थूल संकेत नहीं दिए गए हैं, बल्कि प्रतीकों के द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं स्थूल संकेत दिए गए हैं-
मेरी आहें सोती है इन ओठों की ओटों में,
मेरा सर्वस्व छिपा है इन दीवानी चोटों में।
कवयित्री ने सर्वत्र अपनी प्रणय-भावना का उन्नयन और परिष्कार किया है। इनके प्रेम का आलंबन विराट एवं विशाल है, जो अलौकिक है-
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ ।
नींद भी मेरी अचल निस्पंद कण-कण में,
प्रथम जागृति थी जगत् के प्रथम स्पंदन में,
प्रलय में मेरा पता पद-चिह्न जीवन में।
इन्होंने अन्य छायावादी कवियों की तरह प्रकृति पर सर्वत्र चेतना का आरोप किया है और उसके साथ विविध मधुर संबंधों की कल्पनाएँ की हैं-
रजनी ओढ़े जाती थी !
झिलमिल तारों की जाली,
उसके बिखरे वैभव पर,
जब रोती थी उजियाली।
दुःख-पीड़ा और विषाद महादेवी वर्मा के काव्य का मूल स्वर है और इन्हें सुख की अपेक्षा दुःख अधिक प्रिय है। परन्तु इनमें विषाद का वह भाव नहीं है जो कर्म शक्ति को कुंठित कर देता हो। इनमें संयम और त्याग है तथा दूसरों का हित करने की प्रबल आकांक्षा है-
मैं नीर भरी दुःख की बदली !
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा कभी न अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी थी कल मिट आज चली।
महादेवी एक संन्यासिन की तरह रहती थीं| उन्होंने जीवनभर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् 1966 में पति की मृत्यु के बाद वे इलाहाबाद रहने लगीं। ११ सितंबर १९८७ को इलाहाबाद में रात ९ बजकर ३० मिनट पर उनका देहांत हो गया। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भांति प्रकाशमान रहेगा।
-साहित्य डेस्क
