वसीम बरेलवी साहब मशहूर एवं प्रसिद्ध उर्दू जुबान के शायर हैं| वे पेशे से प्रोफ़ेसर थे| बरेलवी साहब कलम की दुनिया के अनमोल सितारे हैं, जिन्हें चाहने वाले करोड़ों में हैं| इनकी शायरी, शेर, ग़ज़ल, गीत इतने सरल और भावपूर्ण होते हैं कि दिलों की गहराई तक उतर जाते हैं| इनका असली नाम ज़ाहिद हसन वसीम है| पढ़ें उनकी ग़ज़लें|
हरिवंशराय ‘बच्चन’ की पांच बेहतरीन कविताएं
तुम्हारी राह में…
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते
मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते
जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते
ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते
बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते
‘वसीम’ जहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते
उसूलों पे जहां आंच आए…
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटें
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
पढ़ें पैरोडी सम्राट पंडित विश्वेश्वर शर्मा के गीत
…उड़ानों पे वक़्त भारी है
उड़ान वालों उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
मैं क़तरा हो के तूफानों से जंग लड़ता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है
कोई बताये ये उसके ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग हमने लड़ी ही नहीं जो हारी है
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये एक चराग़ कई आँधियों पे भारी है
…ख़ुद आईना हो जाऊँगा
अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा
मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
सारी दुनिया की नज़र में है मेरी अह्द—ए—वफ़ा
इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?
Hasya Kavita Of Hullad Muradabadi : हुल्लड़ मुरादाबादी की ‘हुल्लड़ मचाती कविताएं
रिश्तों से कट गया यारो
मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो
के मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो
वो बेख़याल मुसाफ़िर मैं रास्ता यारो
कहाँ था बस में मेरे उस को रोकना यारो
मेरे क़लम पे ज़माने की गर्द ऐसी थी
के अपने बारे में कुछ भी न लिख सका यारो
तमाम शहर ही जिस की तलाश में गुम था
मैं उस के घर का पता किस से पूछता यारो
