हर वर्ष मुहर्रम का चांद दिखाई देते ही हर तरफ कर्बला और ‘या हुसैन’ की सदा सुनाई देने लगती है| लोगों की ज़ुबान पर पैगाम है इंसानियत| इस दिन सब्र-ए-हुसैन (ए.स) और कुर्बानियों की कहानी फिर से सुनाई देने लगती है। आज मुहर्रम का सबसे अहम दिन रोज-ए-आशुरा है। इस दिन इमाम हुसैन शहीद हुए थे। कल मुसलमान, जो ग़म ए हुसैन मनाते हैं, शाम से ही घरों में चूल्हा नहीं जलाते, बिस्तर पर आराम से नहीं सोते, दिन में भी शाम के पहले खाना नहीं खाते और पानी नहीं पीते। दिनभर रोते हैं, शोक सभाओं में बैठकर मातम करते हैं।
घर का माहौल ऐसा रहता है, जैसे अभी-अभी ही किसी का इन्तकाल हो गया है। जब बात मुहर्रम की होती है तो सबसे पहले जिक्र कर्बला का किया जाता है। आज से लगभग 1370 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। यह जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी। जुल्म के खिलाफ़ लड़ी गई इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे।
जानते हैं क्या हुआ था कर्बला पर। इस्लाम की जहां से शुरुआत हुई, मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया के इंतकाल के बाद शाही वारिस के रूप में उनके बेटे यजीद को शाही गद्दी पर बैठने का मौका मिला। लोगों के दिलों में बादशाह यजीद का इतना खौफ था कि लोग यजीद के नाम से ही कांप उठते थे। पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को यजीद के मुताबिक चलने को कहा और खुद को उनके खलीफा के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा। यजीद को लगता था कि यदि इमाम हुसैन उसे अपना खलीफा मान लेंगे तो इस्लाम और इस्लाम के मानने वालों पर वह राज कर सकेगा।
इसी मतभेद के चलते मुहर्रम पर बगावत छिड़ गई और 10 तारीख को यजीद की फौज ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया। यजीद बहुत ताकतवर था| यजीद के पास हथियार, खंजर, तलवारें थीं, जबकि हुसैन के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही थे। उनमें हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शहीद हो गए थे। यही वजह है कि मुहर्रम की 10 तारीख सबसे अहम होती है, जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं।
हुसैन का कत्ल करने के बाद यजीद ने अहले बैत समर्थकों के घरों में आग लगा दी| इसके बाद काफिले में मौजूद लोगों के घरवालों को अपना कैदी बना लिया। कर्बला में इस्लाम के हित में जंग करते हुए इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को शहीद हुए थे इसी की याद में शिया समुदाय मातम करता है।
